Monday, 24 February 2020

बच्चे गए नहीं-बाल कविता-देवेन्द्र कुमार


बच्चे गए नहीं—कविता-देवेन्द्र कुमार

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शाम ढल गई

खिलखिल थम गई

बच्चे चले गए

क्या सच?

 

नहीं वे मौजूद हैं

पेंसिलों की छीलन,

कागजी गोलियों के

झगडे और मेल में

 

घर के अखाडे में

रंगों के पौ बारह

डांट डपट जा बैठी

बचपन की रेल में

 

अब बड़े बोले

करो कूडे की सफाई 

रुक रे बड़प्पन

मैंने फटकार लगाई

 

बाँध कर रखूंगा

जाने नहीं दूंगा

मैं उनमें वे मुझमें

खेलूंगा खेल मैं  

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